Sunday, November 28, 2010

प्राण-पखेरू

"उस भयानक दैत्य के प्राण-पखेरू एक तोते में कैद थे", कहानियों में ऐसा पढ़ा था, जब मैं छोटी थी.

"प्राण-पखेरू" यह शब्द सुन कर ही मैं हंसने लगती और कहती, "वो फुर्र्र्रर्र्र्रर से उड़ गए"! कभी इस शब्द की उत्पत्ति या संवेदनशीलता को जानने का प्रयास ही नहीं किया. ध्यान में आता तो बस "फुर्र्र्रर्र्र्र", क्योंकि चिड़िया के बारे में ही तो बात हों रही थी. चिड़िया रुपी प्राणों की.

आज-कल मेरी बिल्ली की तबियत काफ़ी खराब है. पिछले ३ महीनों से वो जूझ रही है अपने भविष्य से.
उसकी आँखें धीरे-धीरे पथरीली और शरीर शिथिल पड़ते जाती हैं, दिन पर दिन.

पहले, रोज़ दौड़ी-दौड़ी आती थी दरवाज़े पर जब भी मेरे पति आफ़िस से वापस आते. स्वागत के लिए 'म्याऊ-म्याऊ' करते हुए एकदम तैनात. करीबन १०-११ किलो की बिल्ली, जो भी देखे यही कहता था "बाप रे कितनी मोटी है". आस-पड़ोस के पुलिसवाले तो यह तक पूछ बैठे थे "चीते का बच्चा तो नहीं पाल रखा आपने, इजाज़त नहीं है ऐसा करने की". हम हँस-हँस कर गर्व से लोट-पोट हुए जाते थे.

आज ३-४ किलो की भी नहीं रह गयी है मेरी 'जोजो'.
यही नाम दिया है हमनें प्यार से उसे. एक बच्चे सा पला है.

जानती हूँ, सबके समझ आनेवाली बात नहीं है यह. सिर्फ पशु-प्रेमी ही जानते हैं एक पालतू प्राणी का महत्त्व. कह दे कोई की बिल्लियाँ वफ़दार या स्नेही नहीं होतीं, लड़ ही पड़ेंगे मैं और मेरे पति उनसे.

अब जब मैं उसे देखती हूँ, मेरा मन करता है उसकी आँखों में झाँक कर बात करूं उस पंछी से, जिसका नाम है "प्राण-पखेरू" और रो-रो कर विनती करूं, के मत उड़ जाना.

 मेरे बचपन के हास-परिहास का प्रतिशोध, मूक जोजो से मत लेना.

अभी कुछ वक़्त और चुग लो, इस घर का दाना.


(नोट : 11:15 AM, 2nd December 2010, जोजो अब हमारे बीच नहीं है...उड़ गया पंछी)


शिकार पर निकली 'जोजो'

आराम फरमाती 'जोजो'

Friday, November 19, 2010

बंटवारा

बैठक की चटख लाल दीवार
और उसपर तस्वीरों की भूल-भुलैया,
सुनहरी धारियों वाली प्यालियाँ,
बरामदे का वो झूला
और धूप से सने पडदे,

जायज़ हक है तुम्हे,
हवाले तुम्हारे ही सब कुछ.
मेहनत की कमाई से,
सिक्कों में जो तौला है,
तुमने रुपयों से खरीदा है.

मैंने तो बस चुन-चुन कर,
दिलो-जाँ से सजाया था.
खाली पड़े मकां में,
एक घर ही तो बसाया था.

बैठक = living room,  चटख = bright, भूल-भुलैया = labyrinth, maze, सुनहरी धारियों वाली प्यालियाँ = gold rimmed cups, धूप से सने पडदे = curtains soaked in sunlight,  जायज़ हक = legal right, दिलो-जाँ = whole-heartedly, मकां = house 

Tuesday, November 9, 2010

चढ़ता पानी

उतरते पानी को देर नहीं लगती
दरारों-ढलान का साथ जो है,
वो तो चढ़ते पानी का नसीब है
हर मोड़ पे बरसों की मेहनत है.

शोरो-ग़ुल भी करता है
तो करता है उतरता पानी,
वो तो चढ़ते पानी का नसीब है
जो चुप सा चट्टानों को कलम करता है.

मशहूर है खूबसूरत कर
जब है उतरता पानी
वो तो चढ़ते पानी का नसीब है,
जो बदनाम है तबाही के लिए.

पर तुझे सलाम है, चढ़ते पानी..

के वक़्त की सीढियों को
जूझता हुआ बढ़ा है,
सूखे-प्यासे कुओं में
तू बेझिझक चढ़ा है. 

दरारों-ढलान = cracks & slopes, शोरो-ग़ुल = loud noise, कलम = behead, kill, जूझता = struggle, बेझिझक = uninterrupted, without fear or doubt

Sunday, October 31, 2010

ठेका

"आजकल सब ठेके पे चलता है बीबीजी", जमादार ठन के बोला.

"पर पैसे तो हम तुम्हे ही देते हैं. अगर तुम छुट्टी जा रहे हो तो बदली पर कोई दूसरा सफाईवाला ला दो उतने दिनों के लिए हमें", मिन्नत करते हुए श्रीमती शुक्ला बोलीं.

"बीबीजी ये काम हमारा नहीं है", सरकारी चमचमाता नीला जाकेट पहने कंधे उचकाता बोला वह.

"फिर किसका है ये काम"?

लम्बी सीख की झाड़ू सड़क पर फेरते हुए चुस्त सफाईवाला बिना बीबीजी की ओर देखे कहने लगा, "ठेकेदार का काम है बदली का आदमी देना. इतनी चिंता काहे करती हैं बहनजी, सड़क पर तीन दिन नहीं लगेगा झाड़ू तो कौन महामारी फ़ैल जायेगी".

गर्मियों का मौसम. कालोनी भर के बच्चे धमाचौकड़ी मचाते यहीं से तो गुज़रते थे, सामने के बागीचे में खेलने. कोई टाफी का रैपर फेंकता तो कोई चिप्स का पैकेट. कचरा जमा होने में वक़्त कहाँ लगता है. उसपर सड़क का कचरा तो लावारिस पिल्ले सा, कभी कोई रौंद दे तो कभी लात मार कर किनारे कर दे. छुट्टियों में मेहमानों की रेल-पेल अलग. दिन भर घर के सामने जमा होता कूड़े का ढेर कितना गंदा दिखेगा. यही सब सोच कर बेचारी बोल पड़ी...

"अब कहाँ ढूंढें तुम्हारे ठेकेदार को? कोई फोन नम्बर हो तो दे दो वरना ला दो किसी ओर को, दे देंगे ऊपर से पैसे जितने भी बनेंगे", सफाई पसंद श्रीमती शुक्ला दुखी मन से बोलीं. अपने परिसर को साफ़ रखने के लिए अब घूस भी देनी होगी यह सोचा ही न था उन्होंने.

इसी ताक में था शायद जमादार. झट से बोला "दिन के तीस रुपये बनेंगे. मंज़ूर है तो कहिये मैं कह जाऊंगा किसी और को".

"दिन के तीस, अरे बहुत ज्यादा हैं ये तो".

"मंज़ूर हो तो बोलिए वरना दिए देता हूँ ठेकेदार का नंबर", कचरे का पुलिंदा बांधकर ठेलागाड़ी पर फेंकता हुआ निकलने लगा वो.

उसके तेवर बीबीजी को पसंद न आए, बोलीं " दे दो नंबर".

शाम होने आई. बीबीजी नंबर घुमा घुमा कर परेशान. मुआ लगता ही न था. अजीब सी टूं टूं आवाज़ की रट लगा रखी थी बस.

"दिन के तीस रुपये तो थे, कितना अच्छा होता हाँ कर देती मैं". अब पछता रही थीं बीबीजी.

सुबह सुबह घंटी बजी. मैले से कपड़ो में एक आदमी लंबी सीखवाली झाड़ू लिए खड़ा था. साक्षात् भगवान् अवतरित हुएँ हों ऐसा आदर बीबीजी ने उन्हें दिखाया.

"सुना है आपको बदली पर सड़क की सफाई करवानी है", कान खुजाते हुए फुर्ती से सूचित किया उसने, "दिन के पचास लगेंगे".

"ओह एक दिन में बीस बढ़ गए! खैर तीन दिनों की तो बात है, रख लेते हैं. कहाँ से मिलेगा कोई और. ये आ गया है गनीमत से दरवाज़े पर, इश्वर की देन ही तो है", यह सोच कर बीबीजी झट से हाँ कर बैठी.

आज एक हफ्ता होने को आया. पुराना जमादार पता नहीं कहाँ गायब है. उन्हें अब समझ में आया क्यों बोल रहा था " मैं तीन दिन न आऊँगा". उस वक़्त लगा था कितना कर्मठ कर्मचारी है जो सिर्फ तीन दिनों की छुट्टी का भी ऐलान किये जा रहा है. ठेकेदार का नंबर लगता नहीं ओर नया कहता है दिन के पचास ही लेगा. सबकी मिली भगत है. बस पैसा खाना है सबको! बीबीजी के रूप में छांट कर अपना शिकार चुना था इन लोगों ने.

बात अब सौ-दो सौ से परे जा रही थी. एक गृहिणी का तो बजट ही बिगड़ जाता है. बीबीजी ने मजबूरन अपने पतिदेव को इस घटनाक्रम का ब्यौरा दिया तो वो बिगड़ कर बोले "बड़ी कलेक्टर बनी फिरती हों, कालोनी भर की सफाई का ठेका तुमने ले रखा है क्या?? बंद करो यह सब!"

अगले दिन से न बीबीजी ने पचास रुपये दिए, न किसी ने झाड़ू लगाया.

सड़क पर सब अपनी छाप छोड़े जा रहे थे.
remains of the day



Saturday, October 30, 2010

दिखाई ही नहीं देती मैं


देखनेवाले ने आँखें ही बंद कर रखी हैं या फिर तिलस्मी चादर ओढ़ रखी है मैंने,
के दिखाई ही नहीं देती मैं.

दिखाई देती है ज़मीं और उन ज़र्रों का बनके तारे टिमटिमाना भी,
पर क्योंकर आग की लपटों में सिमटकर भी, दिखाई ही नहीं देती मैं?

क्या पड़ेगा फरक उस सुबह को, जब मैं उठूं ही नहीं
रात की गहराइयों से निकलूँ ही नहीं
मूंदी हुई आँखें खोलूं ही नहीं

मुमकिन है के दिखेगा सबकुछ,
पर कफ़न में लिपटकर भी,
दिखाई ही नहीं देती मैं

Wednesday, October 20, 2010

खरा सिक्का

(यह कविता मैंने तब लिखी थी जब मैं सातवी या आठवी में पढ़ती थी.)

खोटे-खोटे सिक्के
है खोटी ये नोट
खोटे सारे लोग वो
जो करते नहीं वोट

छोटा सा हूँ मैं
पर न छोटी ये बात
के वोट नहीं करते हैं
हम और आप

बड़ी बड़ी ऐनक में
लगते सब कूल
लीपा-पोती याद रही
वोटिंग गए भूल

मम्मी है प्यारी
पर करती नहीं वोटिंग
कहे छुट्टी है आज
चलो चलें boating

ये बात अच्छी नहीं
जानते हैं सभीं
मैं भी कहीं
बनूँ ऐसा नहीं

इस से भला
मैं तो छोटा सही
क्योंकि, सिक्का खरा हूँ मैं,
खोटा नहीं

Tuesday, October 12, 2010

Raindrop: Pearls of wisdom - In conversation with Gulzar Ji (14 August 2008)

Raindrop: Pearls of wisdom - In conversation with Gulzar Ji (14 August 2008)

वरदान

राज्य मिलेगा पर राजा-रानी साथ न रह पाएंगे. सोने की थाल सजेगी पर 
खाने को भोजन न मिलेगा. रमणीय वन-उपवन होंगे पर पैर धरने को 
वसुंधरा नहीं लावा होगा. मित्रगण भरपूर आएँगे पर बित्ती भर भी बात 
न कर पाएंगे. बेरोक टोक आवाजाही नसीब होगी पर गंतव्य पर आप
 का स्वागत नहीं है. पैरों में पाज़ेब पहनाये जायेंगे पर चलना दबे पाँव 
ही होगा. मधुर स्वर के स्वामी बनो पर गुनगुनाना मना है. सबकुछ मिलेगा 
पर उसके भोग पर मनाही है.

 हर सौगात के साथ एक परिच्छेद जो उस उपहार के मायने ही बदल दे.
 यह कैसा वरदान है के देनेवाला देते देते मेरा ही कुछ लेता जाए ?


रमणीय = beautiful, वसुंधरा = earth, बित्ती भर = a little bit, आवाजाही = thorough fare, 
गंतव्य = destination, परिच्छेद = clause/condition, वरदान = blessings

Sunday, September 12, 2010

कहीं तो कुछ...

ऐश है
आराम है
नौकरों की रेल है
बित्ती भर न काम है

लाड़ है
प्यार है
चाहता है हर कोई
भीड़ बेशुमार है

उंगलियाँ जो थम गयीं
चीज़ पर किसी कहीं
न रोक है
न टोक है
चीज़ मुझको मिल गयी

नैन नक्श तीर से
रंग साफ़ सा मिला
आईने से है दोस्ती
नहीं रही कभी गिला

सभी तो है हासिल मगर
क्यों नहीं मैं झूमती
हर्ष से
उल्हास से ?
अडिग से उस विश्वास से?
के
आपे नहीं सम्हल सके
ख़ुशी के फूल इतने हों
बाकी  है क्या, जो रह गया,
कहीं तो कुछ
खाली है क्यों?

Friday, August 6, 2010

कर दे माफ़ उसे

चुप-चाप मैं चलता रहा,
'उफ़' एड़ियों की कुचलता रहा I

देखा गया तुझसे नहीं

दो दम जो रुक के थम गया,
एक भले पेड़ की छांव में,
उस बद्सीब को ही 
ईनाम गाज का दे दिया I

बक्श दे उसे
उठ रहा हूँ मैं
चल रहा हूँ में

ग़र मुझे शह देना ही कुसूर था 
तो कर दे माफ़ उसे,
वो तो बस एक नेक फ़ितरत पेड़ है
मेरे रुकने की सजा उसे तो न दे I

तपती = hot, burning, एडियाँ = heels, गाज = thunderbolt, शह = shelter, asylum,  कुसूर = fault , नेक फ़ितरत = well meaning

दम है तेरी अदाओं में
जो क़त्ल के इल्ज़ाम को
झुक के करतीं हैं कुबूल
और,
दबे होंठ कहती हैं शुक्रिया I

Monday, August 2, 2010

तुकबंदी

पलक, फ़लक, झलक, हलक, छलक, तलक
कुछ आदत सी हो गयी है तुकबंदी की,
ग़र न मिले
तो इतनी तकलीफ
के काफिया जमा ही नहीं,
ग़ज़ल ग़र्क हो गई I

पर किसने कहा है
हर बार मिलेगा ही
तुक से तुक
सुर से सुर

नाकाम रिश्तों का मेला सा है,
गुज़र जाती है उम्र इस इंतज़ार में,
के जुगलबंदी होगी
तुकबंदी होगी

और तुम, ग़ुलाम कलम के,
एक मिसरे को रोते हो ??

तुकबंदी = rhyme, पलक = eyelids, फ़लक = sky, horizon, झलक = glimpse, हलक = throat, छलक = spill over, तलक = up till, काफिया = rhymes, ग़र्क = to drown, जुगलबंदी = harmony (musical terms), ग़ुलाम = slave, कलम = pen, मिसरा = verse, couplet 

श्रद्धांजली

यह कविता ०२/०९/१९९९ को लिखी गयी थी, मेरा जन्मदिन.
पर मेरा मन ठीक नहीं था क्योंकि कुछ ही दिनों पहले हमारे जनरल मेनेजर श्री अनिल भाटिया जी का निधन २८/०८/१९९९ को हुआ था. ये कुछ पंक्तियाँ उन्ही को अर्पित श्रद्दा सुमन हैं (9th sep 1999 issue 'The Brief' में प्रकाशित) -

क्षुब्ध ह्रदय की शीत गति
क्षत मानस की सभी प्रति,
दुःख गहन, सभी नतमस्तक हैं
नम नयन सभी के भरसक हैं I

रुंधे गले में शब्द नहीं
कर सकें जो तुमसे व्यक्त सही -
क्या दशा हुई अंतर्मन की,
कण - कण की और जन - गण की I

उस मंद हास्य की याद लिए
उस दृढ निश्चय को साथ किये,
उन पदचिन्हों को बना दिशा,
होगा चलना अब तेरे बिना I

स्मृति तुम्हारी संग धरे
पल - पल अब भी पास हो तुम,
अर्पित श्रद्धांजली पुष्प तुम्हे
हम सब का विश्वास हो तुम II

क्षुब्ध = hurt, शीत गति = cold pace, क्षत = wounded,  प्रति = replica, गहन = deep, नतमस्तक = heads bowing, नम = moist, भरसक = to the brim, रुंधे = overwhelmed, अंतर्मन = inner self, पदचिन्हों = footprints, श्रद्धांजली = tribute

Sunday, August 1, 2010

एक टांग वाली मेज़

नाज़ुक सी
बिलकुल अलग,
बीचों बीच दरख़्त के तने सी
वो एक टांग वाली मेज़...

गोल तश्तरी सा ताज सागवान का,
उस पर इतना बोझ सामान का,
तन के खड़ी है,
सबकुछ संभाले,
मानो कितना आसान था I

मुझे तो दो बक्शीं हैं तूने,
फिर क्यों वक़्त बेवक़त,
लड़खड़ा कर
धम्म से गिरा जाता हूँ मैं ??

दरख़्त = tree, तश्तरी = tray, ताज = crown, सागवान = teak wood, बक्शीं =  bestowed, granted

Tuesday, July 27, 2010

झलक






(यह कविता १९९० में लिखी गयी थी, जब मैंने दसवीं की परीक्षा दी थी )

कविता का सन्दर्भ है - विश्वामित्र ने मेनका को सागर तट पर देखा. यह घटना उस दृश्य से पहले की है जब वह उन्हें रिझाने और उनकी तपस्या भंग करने आती है. मेनका ने जानबूझ कर उनका ध्यान उस समय आकर्षित करना चाहा जब वे समुद्र तट पर विचरण कर रहे थे. उनकी दृष्टि उस पर पड़ते ही वह एक झलक दिखा कर लुप्त हो गयी. इस घटना ने विश्वामित्र के मन में एक कुतूहल को जन्म दिया. उस ही का परिणाम है यह कविता :

वह मृगनयनी छलने आई
आ, सौंदर्य तट पर लहराई,
लहरा - लहरा कर रही पुकार
थी प्रत्येक शब्द में एक झंकार I

आँखों से छलका मदिरा रस
यूँ छलक-छलक कर गिरता था -
पीने को व्याकुल भ्रमर हुए,
हर भ्रमर, भ्रमर से भिड़ता था I

कर रहे ठिठोली कन्धों पर
सघन घन सम उसके केश सधे,
नागों से लहराते बहते
आर्द्र पवन संग खेल रहे I

मुखचन्द्र कमल सा लिए हुए
यह कौन अप्सरा आई है?
स्वर्णिम आभा की स्वामिनी
अद्भुत सम्मोहन शक्ति पाई है I

मनुष्य मात्र के वश में क्या
देवों के व्रत पर है भारी,
एक झलक दिखा कर लुप्त हुई
मृगनयनी वह सुकुमारी I

मृगनयनी = Doe eyed woman, भ्रमर = Bees, ठिठोली = play around, सघन = Dense, घन = Clouds, सम = like, similarly, आर्द्र = Humid,

फेर चुका हो जो नज़र
दौलत - ए - इश्क के खज़ाने से,
क्या  ख़ाक बुलाते हो उसे
चंद सिक्कों का वास्ता दे कर??
                 

Monday, July 26, 2010

चंद सलवटों का फांसला

दूरियों का क्या हिसाब 
घटती बढ़तीं है दरमियाँ ,
वो तो चंद सलवटों का फांसला है
जो मिटाए न मिटे
घटाए न घटे I


सलवट = Crease (generally on cloth or bedcover)

Thursday, July 22, 2010


                                                                                                        

Wednesday, July 21, 2010

ख्वाइश ही नही...







( ये पंक्तियाँ कुछ वर्षों पहले लिखी गयी थीं )

ख्वाइश ही नही के संग चलें 
फिर भी हर पल का साथ है,


सिर्फ ग़ैरों में नही
अपनों में भी वो बात है,
के ख्वाइश ही नही संग चलें
फिर भी हर पल का साथ है I

नब्ज़ पे थिरकती हैं उँगलियाँ
पर नब्ज़ की पकड़ नही,
जानता नही
मैं वजह सही
पर कुछ इस कर के हालात हैं,
के ख्वाइश ही नही संग चलें
फिर भी हर पल का साथ है I

हश्र है रिश्तों का यही आजकल-
ज्यों सहर की तय है शब्,
और हर शब् की जब्रन रात है I
ख्वाइश ही नही के संग चलें
फिर भी हर पल का साथ है II

गैर = stranger, ख्वाइश = wish, नब्ज़ = pulse, थिरकती = dancing, हालात = circumstances, हश्र = result, conclusion, सहर = morning, शब् = evening, जब्रन = forcefully 


आ कर लगा होता सीधा निशाने पर,

तो अच्छा होता I
क्यों नस - नस को चीर कर,
पूछता है मेरे दिल का पता, ये खंजर ??

नस = veins, खंजर = dagger