Friday, October 26, 2012

दिल्ली

"दिलवालों की दिल्ली, मशहूर है इस कर,
भूल ही जाते हैं लोग
ये मकबरों का शहर है"

Wednesday, October 10, 2012

चस्कों का बाज़ार

(इस कविता का उद्देश्य चस्कों और व्यसनों को बढ़ावा देना नहीं है बल्कि उन्हें दर्शाना है.)

चस्कों का बाज़ार है
ये ले एक तेरा
और ये मेरा

ज़रूरतों से हट जाए ध्यान
इस करके चस्कों को अपनाया है.
दल रोटी अब मेरे बस के बाहर है,
पर ये ले एक फ़ोन देता हूँ तुझे
जब भी भूक लगे
दुश्मन को कर लिया करना
गालियाँ ही सही
खाने को कुछ मिल जाएगा

ज़रूरतों से हट जाए ध्यान
इस करके चस्कों को अपनाया है.
घर-बागीचा अब मेरे बस के बाहर है,
पर ये ले कंप्यूटर देता हूँ तुझे
जब भी मन करे
खेल लेना इसी पर
नकली ही सही
कुछ खेत तो अपने होंगे

ज़रूरतों से हट जाए ध्यान
इस करके चस्कों को अपनाया है.
ख्वाब देखना अब मेरे बस के बाहर है,
पर ये ले नशा देता हूँ तुझे
नींद का नमो-निशां न हो
तो अपना लेना इसे ही
कुछ पल ही सही
चैन से मूँद लेना आँखें

ज़रूरतों से हट जाए ध्यान
इस करके चस्कों को अपनाया है.
वफ़ा अब मेरे बस के बाहर है,
पर ये ले रंगीन-मिज़ाजी देता हूँ तुझे
हर नए मोड़ पे
अपना लेना इसे ही
कुछ पल ही सही
ज़मीर की चुप्पी होगी

चस्कों के बाज़ार में
हर चीज़ बड़ी महँगी है
सस्ते हैं तो बस
भूख, छत, सपनें और प्यार,
बेचनेवाले ने रखा ही नहीं जिन्हें दुकानों में.

Tuesday, October 9, 2012

चुटकलों की थैली में
मेरी ये नज़्म भी डाल दीजे
हमदर्द भी आजकल
सिर्फ कहकहों पर ही दाद देते हैं