Thursday, January 20, 2011

दिल का कहा

इधर काफ़ी दिनों से कुछ लिखा ही नहीं हिन्दी में. ऐसा नहीं के कुछ सूझा नहीं. पर हिन्दी मेरे दिल ही भाषा है. व्यवसाय और रोज़मर्रा की ज़रूरतों ने अंग्रेजी को इस कदर अनिवार्य बना दिया है के अधिकतम समय इस विदेशी भाषा के सहारे ही कटता है. यहाँ तक के आजकल मैंने सोचना भी अंग्रेज़ी में ही शुरू कर दिया है.

पर एक समय आता है जब सिर्फ और सिर्फ हिन्दी में स्वयं को व्यक्त करने का मन करता है. वो है संवेदना और अनुभूति का समय.
कुछ छू जाए दिल को, या फिर उसे चकनाचूर ही कर जाए तो आह बस इस एक ही भाषा में निकलती है.
उस पीड़ा का बोध इतना गहरा के उसके बोझ तले अंग-अंग एक मृत-देह का हिस्सा प्रतीत होता है.

कैसे कोई लिख सकता है प्राणहीन सन्नाट हाथों से. 
उंगलियाँ जो एक 'पहचान फीते' की बाट जोह रही हों, कलम किस कर उठाएंगी?
रोम-रोम निश्वास सुराखों में बसी ये भाषा आज उतनी ही निर्थक है जितना के ये निर्जीव शव.

जा रही हूँ उस संजीवनी की तलाश में जो फिर से सचेत कर सके इस दिल को और उसकी भाषा को 

6 comments:

  1. Update something! some beautiful poem some short story. Don't let this space barren.

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  2. ये पुण्य का काम किया आपने हिंदी में लिखना शुरु किया। अच्छा, मजे दार लिखती हैं हिंदी में। लिखती रहें।

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  3. सही!!
    मुझे तो हिन्दी में लिखना बहुत सुकून देता है...मैंने भी जब ब्लॉग्गिंग की शुरुआत की थी तो अंग्रेजी में ही की थी.लेकिन फिर एक दोस्त के ब्लॉग से इस्पायार्ड होकर मैंने भी हिन्दी में लिखना शुरू कर दिया, और तब से आजतक हिन्दी में ही लिखते आ रहा हूँ ब्लॉग :)

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  4. हिन्दी में लिखने का अपना अलग ही आनंद है, आखिर हमारी मातृभाषा जो है ।

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  5. डोलची : बहुत सुंदर शब्‍द... दो शब्‍द और याद आ गए... सुपौली, मौनी... इनका स्‍वरूप भी आंखों में तैरने लगा।

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  6. धन्यवाद अशोक जी. सुपौली और मौनी कितने प्यारे शब्द हैं. मुझे तो जानकारी ही नहीं थी उनकी.

    विवेक जी, सही कहा आपने. मातृभाषा में लिखने जैसा आनंद और कोई नहीं. बचपन जैसे सामने ही खेलने लगता है.

    अभी जी, आपके ब्लॉगस भी देखे मैंने. बड़े ही रोचक हैं. लिखते रहिये. हिंदी, अंग्रेजी जैसे भी हो विचारों का प्रवाह रुकना नहीं चाहिए.

    जी अनूप जी. प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद. ज़रूर लिखती रहूंगी नियमित रूप से हिंदी में अब.

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