Sunday, September 12, 2010

कहीं तो कुछ...

ऐश है
आराम है
नौकरों की रेल है
बित्ती भर न काम है

लाड़ है
प्यार है
चाहता है हर कोई
भीड़ बेशुमार है

उंगलियाँ जो थम गयीं
चीज़ पर किसी कहीं
न रोक है
न टोक है
चीज़ मुझको मिल गयी

नैन नक्श तीर से
रंग साफ़ सा मिला
आईने से है दोस्ती
नहीं रही कभी गिला

सभी तो है हासिल मगर
क्यों नहीं मैं झूमती
हर्ष से
उल्हास से ?
अडिग से उस विश्वास से?
के
आपे नहीं सम्हल सके
ख़ुशी के फूल इतने हों
बाकी  है क्या, जो रह गया,
कहीं तो कुछ
खाली है क्यों?