इधर काफ़ी दिनों से कुछ लिखा ही नहीं हिन्दी में. ऐसा नहीं के कुछ सूझा नहीं. पर हिन्दी मेरे दिल ही भाषा है. व्यवसाय और रोज़मर्रा की ज़रूरतों ने अंग्रेजी को इस कदर अनिवार्य बना दिया है के अधिकतम समय इस विदेशी भाषा के सहारे ही कटता है. यहाँ तक के आजकल मैंने सोचना भी अंग्रेज़ी में ही शुरू कर दिया है.
पर एक समय आता है जब सिर्फ और सिर्फ हिन्दी में स्वयं को व्यक्त करने का मन करता है. वो है संवेदना और अनुभूति का समय.
कुछ छू जाए दिल को, या फिर उसे चकनाचूर ही कर जाए तो आह बस इस एक ही भाषा में निकलती है.
उस पीड़ा का बोध इतना गहरा के उसके बोझ तले अंग-अंग एक मृत-देह का हिस्सा प्रतीत होता है.
कैसे कोई लिख सकता है प्राणहीन सन्नाट हाथों से.
उंगलियाँ जो एक 'पहचान फीते' की बाट जोह रही हों, कलम किस कर उठाएंगी?
रोम-रोम निश्वास सुराखों में बसी ये भाषा आज उतनी ही निर्थक है जितना के ये निर्जीव शव.
जा रही हूँ उस संजीवनी की तलाश में जो फिर से सचेत कर सके इस दिल को और उसकी भाषा को