गज़ब के गोताखोर हैं हम,
गोताखोर = deep sea diver, शुक्तिका = silver coloured mother of pearl, जलमग्न = submerge, खोह = depth, रुपहली = like silver, संहार = destruction, रजत-शुक्तिका = the silver medallion victory sign - mother of pearl
छलांग मारते देर नही लगती,
सीप का आभास ही काफी है,
के ये लो, हम कूदे.
इतनी डुबकियों के बाद भी, अभी तक
ये समझ ही न आया,
के शुक्तिका की तलाश में
हम जलमग्न हुए जाते हैं,
बार बार, नाक़ाम .
ज़रा सी खोह जाँची
और वापस ऊपर.
जोर-जोर से हाँफते
क्योंकि ये सीप वो नही जो तह तक बुलाये.
पानी पानी हुए जाते हैं
तन से भी और मन से भी,
हर भ्रम के साथ विफलता की एक पुड़िया और
हर बार शर्मिंदा
हर बार अगली बार का खुद से वादा ,
के बस एक बार और.
कहीं एक मौके की तलाश में,
दांव न चूक जाए.
आखिर में रुपहली सीप आ ही गयी हाथ!
गहरी छिपी बैठी थी,
पाते ही ये ख़ुशी, के भूल ही बैठे ऊपर भी जाना है
खोल पानी से बाहर भी आना है.
तरल खाई को ही घर मान कर
मोती को अपना ध्येय जान कर
लापरवाह,
तज बैठे अपना ही मान!
शर्म, मायूसी, थकान सब एक तरफ
सफलता का नंगा नाच एक तरफ
अधूरी निष्फल
डुबकियों ने जितना न दिया हो
दुःख उतना, एक कामयाबी ने दिया है.
आत्म सम्मान का संहार
किसी और ने नही,
किसी और ने नही,
उस रजत-शुक्तिका ने किया है .
गोताखोर = deep sea diver, शुक्तिका = silver coloured mother of pearl, जलमग्न = submerge, खोह = depth, रुपहली = like silver, संहार = destruction, रजत-शुक्तिका = the silver medallion victory sign - mother of pearl
कविता का मूल भाव अन्तस्थ करने का प्रयास कर रहा हूँ -
ReplyDeleteसीपी के लिए शुक्ति शब्द काफी अरसे के बाद सुना ....
तो आप मुक्ता शुक्ति की तलाश के बाद भी प्रवंचित अनुभव कर रही है -
तब तो पता नहीं कितने ओर गोते लगाते रहना होगा -किसी के लिए यही नियति बन जाती हो शायद!
बेहद अच्छी कविता है..बहुत खूबसूरत!!
ReplyDeleteऔर एकदम सच्ची बात कही है आपने!!
अरविन्द जी के बात से मैं भी सहमत हूँ..
और सच में सीप के लिए शुक्ति शब्द मैंने बहुत ही कम सुना है..:)
धन्यवाद अरविंद जी और अभी जी,
ReplyDeleteमूल भाव यही है के चाहे वो प्रेम हो, या कार्यालय हो, या अध्ययन या राजनीती...चाहे किसी भी क्षेत्र में जब तक विफल रहते हैं, बार बार परिश्रम करते हैं - तब तक हमारा प्रयास सविनय, नम्र और पूरे समर्पण भाव से किया जाता है. किन्तु सफलता मिलते ही न जाने कौन सा राक्षस सवार हो जाता है हमारे सर पर के हम अपना वास्तविक स्वाभाव और लक्ष्य ताक पर रख कर एक तांडव सा करने लगते हैं - दिखावे और विलास का ऐसा नंगा नाच जो हमारे सारे किये धरे को धूमिल कर देता है.
रजत शुक्तिका की धार संहार पर उतर आती है.
बिल्कुल,यह भाव स्पष्ट था आपने और इलाबोरेट कर दिया ,शुक्रिया !
Deleteबहुत ही गहन भाव लिए बेहतरीन कविता
ReplyDeleteबहुत बढ़िया:-)