Saturday, October 30, 2010

दिखाई ही नहीं देती मैं


देखनेवाले ने आँखें ही बंद कर रखी हैं या फिर तिलस्मी चादर ओढ़ रखी है मैंने,
के दिखाई ही नहीं देती मैं.

दिखाई देती है ज़मीं और उन ज़र्रों का बनके तारे टिमटिमाना भी,
पर क्योंकर आग की लपटों में सिमटकर भी, दिखाई ही नहीं देती मैं?

क्या पड़ेगा फरक उस सुबह को, जब मैं उठूं ही नहीं
रात की गहराइयों से निकलूँ ही नहीं
मूंदी हुई आँखें खोलूं ही नहीं

मुमकिन है के दिखेगा सबकुछ,
पर कफ़न में लिपटकर भी,
दिखाई ही नहीं देती मैं

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