Sunday, October 31, 2010

ठेका

"आजकल सब ठेके पे चलता है बीबीजी", जमादार ठन के बोला.

"पर पैसे तो हम तुम्हे ही देते हैं. अगर तुम छुट्टी जा रहे हो तो बदली पर कोई दूसरा सफाईवाला ला दो उतने दिनों के लिए हमें", मिन्नत करते हुए श्रीमती शुक्ला बोलीं.

"बीबीजी ये काम हमारा नहीं है", सरकारी चमचमाता नीला जाकेट पहने कंधे उचकाता बोला वह.

"फिर किसका है ये काम"?

लम्बी सीख की झाड़ू सड़क पर फेरते हुए चुस्त सफाईवाला बिना बीबीजी की ओर देखे कहने लगा, "ठेकेदार का काम है बदली का आदमी देना. इतनी चिंता काहे करती हैं बहनजी, सड़क पर तीन दिन नहीं लगेगा झाड़ू तो कौन महामारी फ़ैल जायेगी".

गर्मियों का मौसम. कालोनी भर के बच्चे धमाचौकड़ी मचाते यहीं से तो गुज़रते थे, सामने के बागीचे में खेलने. कोई टाफी का रैपर फेंकता तो कोई चिप्स का पैकेट. कचरा जमा होने में वक़्त कहाँ लगता है. उसपर सड़क का कचरा तो लावारिस पिल्ले सा, कभी कोई रौंद दे तो कभी लात मार कर किनारे कर दे. छुट्टियों में मेहमानों की रेल-पेल अलग. दिन भर घर के सामने जमा होता कूड़े का ढेर कितना गंदा दिखेगा. यही सब सोच कर बेचारी बोल पड़ी...

"अब कहाँ ढूंढें तुम्हारे ठेकेदार को? कोई फोन नम्बर हो तो दे दो वरना ला दो किसी ओर को, दे देंगे ऊपर से पैसे जितने भी बनेंगे", सफाई पसंद श्रीमती शुक्ला दुखी मन से बोलीं. अपने परिसर को साफ़ रखने के लिए अब घूस भी देनी होगी यह सोचा ही न था उन्होंने.

इसी ताक में था शायद जमादार. झट से बोला "दिन के तीस रुपये बनेंगे. मंज़ूर है तो कहिये मैं कह जाऊंगा किसी और को".

"दिन के तीस, अरे बहुत ज्यादा हैं ये तो".

"मंज़ूर हो तो बोलिए वरना दिए देता हूँ ठेकेदार का नंबर", कचरे का पुलिंदा बांधकर ठेलागाड़ी पर फेंकता हुआ निकलने लगा वो.

उसके तेवर बीबीजी को पसंद न आए, बोलीं " दे दो नंबर".

शाम होने आई. बीबीजी नंबर घुमा घुमा कर परेशान. मुआ लगता ही न था. अजीब सी टूं टूं आवाज़ की रट लगा रखी थी बस.

"दिन के तीस रुपये तो थे, कितना अच्छा होता हाँ कर देती मैं". अब पछता रही थीं बीबीजी.

सुबह सुबह घंटी बजी. मैले से कपड़ो में एक आदमी लंबी सीखवाली झाड़ू लिए खड़ा था. साक्षात् भगवान् अवतरित हुएँ हों ऐसा आदर बीबीजी ने उन्हें दिखाया.

"सुना है आपको बदली पर सड़क की सफाई करवानी है", कान खुजाते हुए फुर्ती से सूचित किया उसने, "दिन के पचास लगेंगे".

"ओह एक दिन में बीस बढ़ गए! खैर तीन दिनों की तो बात है, रख लेते हैं. कहाँ से मिलेगा कोई और. ये आ गया है गनीमत से दरवाज़े पर, इश्वर की देन ही तो है", यह सोच कर बीबीजी झट से हाँ कर बैठी.

आज एक हफ्ता होने को आया. पुराना जमादार पता नहीं कहाँ गायब है. उन्हें अब समझ में आया क्यों बोल रहा था " मैं तीन दिन न आऊँगा". उस वक़्त लगा था कितना कर्मठ कर्मचारी है जो सिर्फ तीन दिनों की छुट्टी का भी ऐलान किये जा रहा है. ठेकेदार का नंबर लगता नहीं ओर नया कहता है दिन के पचास ही लेगा. सबकी मिली भगत है. बस पैसा खाना है सबको! बीबीजी के रूप में छांट कर अपना शिकार चुना था इन लोगों ने.

बात अब सौ-दो सौ से परे जा रही थी. एक गृहिणी का तो बजट ही बिगड़ जाता है. बीबीजी ने मजबूरन अपने पतिदेव को इस घटनाक्रम का ब्यौरा दिया तो वो बिगड़ कर बोले "बड़ी कलेक्टर बनी फिरती हों, कालोनी भर की सफाई का ठेका तुमने ले रखा है क्या?? बंद करो यह सब!"

अगले दिन से न बीबीजी ने पचास रुपये दिए, न किसी ने झाड़ू लगाया.

सड़क पर सब अपनी छाप छोड़े जा रहे थे.
remains of the day



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